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घर से निकलकर दूसरे का घर गांव से निकलकर दूसरे का गांव शहर से निकलकर दूसरे का शहर प्रान्त से निकलकर दूसरे का प्रान्त देश से निकलकर दूसरे का देश,अलग भाषा अलग रीति रिवाज अलग पहिचान अलग अलग कानून अलग अलग व्यवहार कौन कहता है कि मानव समुदाय एक है ? जब धन अधिक हो गया तो पहिचान बन गयी,औकात की पूँछ केवल किये गये कार्यों के प्रति हल्की फ़ुल्की संवेदना देने के अलावा कुछ भी नही है ! देश एक है तो राज्य बांट दिये गये संसार एक है तो देश बांट दिये गये,रहन सहन एक है तो धर्म बांट दिये गये,कौन कहता है कि हम एक हैं ?
यह सब मानवीय स्वार्थ की नीति के अन्दर ही समाहित है। जो लोग अपने को उच्चता की श्रेणी मे ले जाते है वे ही अपने अनुसार कानून बनाने के लिये जगत मे हित और अनहित की बातें फ़ैलाने के लिये तथा खुद की स्वार्थ नीति मे सब कुछ अपने लिये ही करने के लिये प्रयास कर रहे है। साधारण आदमी या तो उनकी नीतियों को मानकर चलता रहे और जैसा वह नचाये नाचता रहे,अगर बेवश है नही चल सकता है तो कितने ही कानून उसके लिये खुद के दुश्मन बन जायेंगे जो लोग उसके साथ चल रहे थे वे ही जलन के कारण उसके दुश्मन बन जायेंगे और जो भी उसने अपने जन्म से लेकर उस उम्र तक कार्य किया है सभी को भूल कर केवल वही कानून लादा जायेगा जो उन लोगों ने अपने स्वार्थ के लिये बनाये है.
जब केन्द्र की सरकार एक है पार्टी एक है तो पूरे देश में अलग अलग कानून कैसे चल रहे है,घर निकलो मोबाइल से बात करनी है जरा से आगे बढ गये तो दूसरा प्रान्त शुरु हो गया वही बात जो साधारण काल रेट मे हो रही थी वह रोमिंग मे बदल गयी,हो गयी न परायेपन की बात एक ही कम्पनी अपने एक ही नेटवर्क को चला रही है अलग अलग स्थान पर अलग अलग रेट दे रही है और वह रेट हम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये दिये जा रहे है कोई हील हुज्जत नही है कारण उस कम्पनी की सेवा हम ले रहे है और उस कम्पनी के अलावा भी हम सेवा अन्य कम्पनी की लेते है तो बाहर से वह कम्पनी अलग अलग है लेकिन एक जगह पर बैठ कर एक साथ लूटने का कानून बना लिया गया है सरकार जो समानता और एकता की बधाई देती है खुद ही कानून बनाकर बैठी है कि अलग अलग प्रान्त तो अपने अपने अनुसार वसूली ! अरे वाह रे लोकतन्त्र ! धिक्कार है इस प्रकार के लोकतंत्र की परिभाषा को प्रतिपादित करने वालो के लिये और धिक्कार है ऐसे झेलने वालो के लिये कि सब कुछ सहते ही जा रहे है सहते ही जा रहे है कतई भी आवाज नही है,जरा सी किसी ने आवाज उठाई तो हो गया काम,नया कानून फ़ौरन बनकर आवाज वाले की गटकी दबाने के लिये सामने आजायेगा।
सीखा कहां से बोले एक ही स्कूल से अक्षर एक से ही सीखे,जो ज्ञान लिया इसी दुनिया से लिया किसी अन्य ग्रह से इसे लेकर नही आये अक्षर से शब्द बने शब्द से वाक्य बने और वाक्य लिख दिये गये तो बन गया कापीराइट एक्ट ! जब अपने आप कोई चीज लेकर आते अपने आप ही उसे सृजित करते अपने ही शब्द बनाते और अपने ही अक्षर बनाकर उसे प्रसारित करते तो मानते कि वह तुम्हारे अधिकार मे है,जब यहीं से लिया यहीं पर दिया तो काहे का कापीराइट एक्ट ?
एक प्रान्त मे खेत है दूसरे प्रान्त मे घर है खेत से घर तक फ़सल लाने के लिये चुकाओ प्रान्त का टेक्स,नही चुकाते हो तो बेचो खेत पर और लाओ पैसे को घर पर फ़िर जाकर खरीदो अनाज और खाना शुरु कर दो,वाह क्या कानून है अपनी ही की गयी मेहनत को अपने ही घर नही ला सकते अपने ही खून पसीने की कमाई पर टेक्स देना है,वह टेक्स जो जायेगा सरकार के घर मे और सरकार अपने अपने अनुसार उसे खर्च करदेगी कमीशन वाले ठेको पर होयेगा या नी होयेगा यह बाद की बात है लेकिन जब तक सरकार है तब तक आराम से काम चलता रहेगा,सरकार जायेगी काम बन्द हो जायेगा,कमीशन वाले कमीशन ले गये काम करने वाले अपने अपने घर चले गये जब दुबारा से सरकार आयेगी तो काम होगा वह भी दुबारा से ठेके देकर,देखा कितना भला होता है हमारे द्वारा दिये गये टेक्स से !
जब हम नमक को खरीदने के वक्त टेक्स देते है साबुन लेने के समय टेक्स देते है चाय पीने पर टेक्स देते है दाढी बनवाने पर टेक्स देते है फ़िर सरकार ठेके से सडक निर्माण क्यों करती है वह जो टेक्स लेती है उसे कहां ले जाती है जो हमारे लिये आने जाने का रास्ता नही बनवा सकती है रास्ते पर जाते ही तमाम तरह के टोल टेक्स देने पडते है जेब मे टेक्स देने का पैसा नही है तो आधे रास्ते से वापस भी नही आ सकते है कारण लौटने के लिये भी देना पडेगा टेक्स ! कितने बडे बडे पढे लिखे लोग आज इस समाज मे अपना दम भरते है कि वे बहुत ही बडे धन विज्ञानी है लेकिन देखा जाये तो केवल वे भी अपनी अपनी जेब भरने के अलावा और लोगो को पागल बनाने के लिये समझे जा सक्ते है जब हम टेक्स देकर अपने रास्ते को तय करेंगे तो काहे का टेक्स चुकाने का फ़ायदा !
रेलवे स्टेशन पर टिकट बंटती जा रही है उन्हे पता है कि गाडी मे डिब्बे इतने नही है कि जितनी टिकट बंट गयी है या पिछले स्टेशन से भीड आ रही है तो फ़िर क्यों टिकट बांटते जा रहे है सीधे से क्यों नही कह देते कि गाडी मे जगह नही है जाना है अगली गाडी का इन्तजाम हो जाने दो या जब टिकट ही बेच दिये है तो जितने यात्री है उतने डिब्बे और लगाये जायें,उन्हे इससे मतलब नही है कि आप कैसे जायें उन्हे मतलब है कि उन्हे कितना पैसा कमाना है और उस पैसे को अपने अपने अनुसार विभिन्न प्रकार की योजनाये बनाकर खर्च करना है वह भी काम ठेके से होगा,जितना अच्छा कमीशन होगा उतना ही काम अगले को दिया जायेगा और उस कमीशन के चक्कर मे अच्छे काम करने वाले को धता बताकर जो बिलकुल ही काम नही जानता है उसे दे दिया जायेगा भले ही दो महिने बाद दुबारा से लाइन उखाडनी पडे या पुलिसा बनवानी पडे,ऊपर से लटक कर जाओ और टेक्स भी दो,अरे वाह री सुविधा क्या बात है मानना पडेगा,किसी गंतव्य तक जाने के लिये आरक्षण करवा लीजिये,मां के बीमार होते ही आरक्षण करवाना जरूरी है कारण जब मां मरेगी तो तत्काल मे भी आरक्षण नही मिल पायेगा,जब हम पैसा देकर जा रहे है तो किस काम का आरक्षण ? केवल कुछ लोगो के भले के लिये और सुविधा नही देकर वसूली करने से ही आरक्षण का लाभ ! गजब की नीति है वाह ! मानना पडेगा इस व्यवस्था को कितनी अच्छी है हमारी व्यवस्था और कितने अच्छे है हम लोग जो इस व्यवस्था को झेल रहे है और मुट्ठी भर लोगो की जेबे ठूस ठूस कर भरे जा रहे है।
मच्छरो को हमने नही बुलाया उनकी तो आदत होती है जहां पानी देखा अपने अंडे बच्चे देकर अपना फ़ैलाव कर लिया और जब उन्हे भूख लगी तो हजारो लोगों का खून चूसने की उन्हे आजादी है। वह सभी को एक भाव से देखते है उन्हे पता नही होता है कि उनके पेट मे जो खून है वह मलेरिया से युक्त है वे एक से दूसरे के अन्दर मलेरिया को फ़ैलाते चले जा रहे है,जब जूडी देकर बुखार आया तो जाना डाक्टर के पास ही पडेगा,उस डाक्टर के पास जो अपने बाप का लाखो रुपया बरबाद करने के बाद डाक्टर बना है और जाकर सरकारी अस्पताल की कुर्सी संभाल ली है। लाइन लभी है जूडी के मारे बुरा हाल है नम्बर आते आते पता चलता है डाक्टर साहब राउंड पर चले गये है,हार कर प्राइवेट अस्पताल मे जाना पडेगा और वहां तो वे अपनी सुबह की अगरबत्ती ही इसलिये लगाते है कि कितने मुर्दे आकर कटेंगे और कितना उनका मुनाफ़ा होगा,जाते ही पर्ची बना दी कि जाओ और खून टेस्ट करवा कर आओ,लेब मे गये खून चैक हुआ मलेरिया तो एक तरफ़ रह गया,रिपोर्ट मे बता दिया कि खून मे विषैले जीवाणु है पेलेट कम हो गये है मरीज की जान को खतरा है,फ़ौरन खून का बन्दोबस्त करो,मरीज पहले से ही जूडी से हिल रहा था मौत का नाम सुनकर और उसके बाकी के होश भी फ़ाख्ता हो गये,सोचने लगा उसने इतनी मेहनत क्यों की थी जो इतनी गहरी नींद मे सो गया था कि मच्छर ने काट लिया और उसे पता ही नही लगा,खून के बन्दोबस्त के लिये ब्लड बैंक की शरण ली,पता लगा कि सरकार ने ब्लड डोनेट करने वालो पर अंकुश लगाने के लिये समाज सेवी संस्थानो से मना कर दिया है,जाओ अपने घर से किसी सदस्य को लाओ और खून को दान करो तब जाकर खून मिलेगा। एक तो जूडी से मर रहा था दूसरे ने जो नमक रोटी खाकर जैसे तैसे अपने शरीर की पालना के लिये थोडा बहुत बनाया था उसे भी जाकर दान करना है,भले ही जूडी वाला बच जाये लेकिन उसकी तो आफ़त आनी है कारण या तो खून की कमी से वह अपने काम नही कर पायेगा और सुस्त सा पडा रहेगा और भोजन भी नही मिल पायेगा कारण उसके ही घर के आदमी को जूडी आयी थी,घर मे कलह होने लगेगा अगर पति ने दिया है तो पत्नी तमाशा बना देगी और पत्नी ने दिया है तो ससुराल वाले आकर हंगामा खडा कर देंगे जरा सी भी खोपडी ऊंची की कि हो गया शुरु 498 का खेल,परिवार के साथ खुद भी बंद,जो था वह भी गया और अगले बीस साल के लिये फ़िर फ़कीर ? क्या किया जाये,हम स्वतंत्र हुये थे अपनी आजादी को देखकर हम बहुत हैरान थे कि अंग्रेजों की जुल्म वाली कहानी से दूर हो गये है लेकिन यह नही पता था कि जो बाते अंग्रेजो ने अपने हित के लिये फ़ैलाई थी कि वे केवल आदमी को धन से तौलने के अलावा और कोई बात ही नही जानते थे,चाहे भोजन हो या शिक्षा कानून हो या सामाजिक बन्धन वे वही सब कुछ जाते जाते दे गये जो उनके पास था,और हमारे ही लोगो ने खुद को अंग्रेज बनाकर वही व्यवहार करना शुरु कर दिया। मुझे याद है वह तीसरी श्रेणी की यात्रा जहां कम से कम सीटे नही होने से आदमी भूसे की तरह से तो भरकर यात्रा कर लेता था आज दूसरे श्रेणी के डिब्बे मे वह हालात है कि अगर एक व्यक्ति को पेट की तकलीफ़ है तो वह कितने ही लोगों की हालत खराब करने के बाद ही शौचालय तक पहु़ंचेगा और वहां भी लोग डेरा जमाकर बैठे होंगे.(जय हो हम आदमियों की )
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