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प्रकृति का कानून

Shilpjyoti by Astrobhadauria
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प्रकृति अपने कानून को हमेशा कायम रखती है। मनुष्य अपने अनुसार कानून का निर्माण कर ले लेकिन वह चल नही पाता है। अगर अहम से और हठधर्मी से चलाने की कोशिश करे तो वह या तो नाश करने वाला होता है या कानून की मान्यता को समाप्त करने वाला होता है। तीन व्यक्ति एक साथ कहीं गये होते है और दो वापस आते है तो तीसरे के बारे में जानने की कोशिश लौटने वाले दो लोगो से ही होगी यही प्रकृति का कानून है। कानून अगर मनुष्य ने बनाया है तो वह कानून मनुष्य की जान माल की रक्षा के लिये ही माना जायेगा। जहां पर कानून मनुष्य की जान माल की रक्षा से परे हट कर आदेश देगा वही पर कानून की मान्यता समाप्त हो जायेगी। लोग उस कानून को मानने से इन्कार कर देंगे। कानून जहां पर मनुष्य हित के लिये अपने को आगे रखता है वही कानून अच्छा माना जाता है लेकिन वही कानून अगर मनुष्य के हित से परे हट कर अपनी अहमियत को जाहिर करता है कानून का रूप ही समाप्त हो जाता है। देश का कानून और राज्य का कानून स्थानीय लोगो को मानना होता है विदेशी कानून को तभी माना जाता है जब व्यक्ति का सम्बन्ध विदेशियों से होता है और उनके काम काज रहन सहन मे विदेशी परिवेश या आवागमन जुडता है।
भारत की भूमि नदी पहाडो और पठारो के साथ साथ रेगिस्तानी पर्यावरण से जुडी है। जो भी शहर नदियों और समुद्र के किनारे बसे है उनका प्राचीन समय मे बसने का एक ही कारण था कि उस समय पानी की जरूरत यातायात के लिये जल यातायात का प्रयोग और आवागमन के लिये जलीय कारणो का प्रयोग करना। जैसे जैसे आधुनिकता का जामा भारतीय भूमि पर विदेशियों की नीति से जन सामान्य मे समाने लगा नदियों मे बांध बना दिये गये पानी को रोक कर बिजली बनायी जाने लगी और पानी को नहरो के द्वारा असिंचित भूमि को दिया जाने लगा इस प्रकार से भारत की जनता को एक तरफ़ कृषि के कामो मे सफ़लता मिलने लगी और अन्न की उपज अधिक होने लगी तरह तरह के रसायनो को प्रयोग करने के बाद अन्न की पैदावारी की क्षमता को बढाया जाने लगा लेकिन भारतीय परिवेश और जलवायु को असर प्रदान करने वाले कारको का पैदा होना शुरु हो गया। जहां पर बांध बना दिये गये नदी आदि मे आगे पानी का जाना बन्द हो गया इस प्रकार से नदी के रास्ते मे पडने वाले जंगलो में जंगली जानवरो मनुष्यों पशुओं पक्षियों और उन जीवो को जो नदी आदि के पानी से अपनी जीवन रेखा को चलाते थे उनका समाप्त होना शुरु हो गया और कई जीवो की जातिया कई प्रकार की वनस्पतिया कीडे मकोडे आदि समाप्त होने लगे और आज उनकी जीवन रेखा समाप्त सी हो गई है।
जो भी शहर है और वे नदी के किनारे है तो लाजिमी है कि नदी बिना नालो के नही बनती है नालो से पानी नदी मे जाता है और नदी का पानी समुद्र मे जाता है। जो नदी का नाला बना हुआ है वहां पर शहरो के फ़ैलाव के बाद आबादी नालो की जमीन मे भी होनी जरूरी है। मनुष्य अपने लिये जो भी आवास बनाता है अपने विवेक से बनाता है उसे यह पता होता है कि अगर वह खतरनाक जमीन पर या नदी नाले की जमीन पर बनायेगा तो जब भी बारिस होगी तो उसे अपने निवास से हाथ धोना पडेगा और हो सकता है कि उस पानी की बाढ मे उसके जीवन को भी हानि हो जाये। अक्सर जो भी आवास नदियों के किनारे बनाये गये है वह बहुत ही सूझ बूझ और मनुष्य ने अपनी सुरक्षा से ही बनाये है,कभी कभी अचानक भारी बारिस होने से भूकम्प आने से जन हानि हो सकती है लेकिन यह प्रकृति के कानून के अन्दर आता है मनुष्य के कानून के अन्दर नही आता है।
कानून की मान्यता
कानून की मान्यता वही तक सीमित है जहां तक मनुष्य के जान माल की सुरक्षा जीव जन्तु को रहने और उनके पालन पोषन का समाधान करने के प्रति हो,इसके अलावा कानून केवल स्वार्थी कानूनो की श्रेणी मे आजाते है और कानून का प्रयोग केवल व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिये किया जाता है। वकीलो का अतिक्रमण कानून को गैर कानूनी बनाने और कानून की मुख्य धारा से दूर करने मे बहुत सहायक बनता है,वकील का प्रयोग व्यक्ति के शिक्षित नही होने पर अदालत मे अपनी बात कहने के लिये हिम्मत नही होने पर और अदालती भाषा को नही समझने के लिये ही किया जाता है,लेकिन वकील का उपयोग लोग झूठ को सच साबित करने के लिये खुद के स्वार्थ के लिये कई कानूनी दाव पेच को प्रयोग करने के लिये और कानून को कानून से ही काटने के लिये प्रयोग मे लेते है इस काम के लिये कई प्रकार के वकील अपने आप अपनी साख बनाते चले जाते है,उस साख मे उनका रूप इस प्रकार से देखा जाता है कि अमुक वकील ने अमुक केश को जो वास्तव मे हारने वाला था जिता दिया,और जो मेहनताना वकील को हारने वाले केश के प्रति जिताने की एवज मे मिला है उस मेहनताना से वकील अपने को श्रेष्ठ वकील मानने लगता है जबकि उस केश मे जो हकदार था उसका हक चला गया और जिसे बेईमानी से हक प्राप्त करने के लिये कानून का प्रयोग करना था उसे हक मिल गया और इस प्रकार से कानून का प्रयोग हकदार को हक से दूर करने के लिये और बेईमान को अपने कार्यों मे बढावा देने के लिये मिलना शुरु हो गया।
मनुष्य हित पहले है कानूनी दाव पेच बाद में
अगर किसी कानून से मनुष्य के जीवन उसके रहन सहन उसके द्वारा अर्जित कार्य के उपरान्त आय से अहित होता है तो कानून मान्य नही है। कानून को मानने के लिये धारा कोई भी बना दी जाये और कानून का प्रयोग किया जाने लगे लेकिन वह अगर जनता के अहित मे है तो कानून की मान्यता समाप्त होने मे कोई सन्देह नही है। अगर मनुष्य को मिलने वाले भोजन उसके द्वारा अर्जित आय को कानूनी रूप से कोई अतिक्रमित करने की कोशिश करता है तो कानून का काम उसे सहायता देने का है न कि कानून उसे और परेशान करे अदालत मे एडिया घिसने के लिये बाध्य करे,अगर कानून इस प्रकार के कृत्य करता है तो कानून कानून न रहकर केवल व्यक्ति विशेष को लाभ देने वाला कानून बन जाता है। और इस प्रकार के कानून से लोगो का विश्वास खत्म हो जाता है जो भी कानून को बनाने वाले लोग होते है जो भी कानून को प्रयोग करने वाले कारको मे अपनी सहायता करते है और जो भी कानून को जबरदस्ती मनवाने के लिये सरकार व्यक्ति या साधनो का प्रयोग करने के लिये सामने आते है वह सभी भ्रष्टाचार की श्रेणी मे आजाते है.चाहे वह जज हो वकील हो या अपनी रोटी सेंकने के लिये कानून का प्रयोग करने वाले हों।
कानून का दुरुपयोग स्वार्थी तत्व ही करते है
अभी हाल का किस्सा जयपुर का है कानून का दुरपयोग करने के लिये समाज के कुछ तत्वो ने नाला अमानीशाह की जमीन को राजनीति और कानून के सहारे से हडपने के लिये एक भविष्य की सीमा को निर्धारण करने के बाद कि नाले के नाम से जमीन जो कैसे कब्जे मे लिया जाये,एक जनहित याचिका हाईकोर्ट मे लगवा दी,जनहित याचिका मे यह उजागर किया गया कि नाला अमानीशाह जयपुर की शान है और इस नाले मे अतिक्रमण करने के बाद लोग बस गये है इस बसावट को समाप्त करने के बाद नाले को अतिक्रमण से मुक्त करवा दिया जाये। जयपुर के विकास मे अपनी योग्यता को निर्धारण करने वाले अफ़सरो ने सरकारी कानून का प्रयोग करने के बाद और सहज उपयोग के लिये जो भाग जनता के हित मे काम आ सकता था इसका नियमन करने के बाद निर्माण कार्यों के लिये अपनी कानूनी प्रक्रिया को पूरा किया और लोगो के लिये विद्यालय रिहायसी स्थानो के लिये निर्माण करने की कानूनी मान्यता दे दी। लेकिन जैसे ही उन लोगो को पता लगा कि अमूल्य जमीन को बसावट के लिये दिया जाता है तो उनकी भविष्य की आने वाली कमाई को कोई नही दे पायेगा और शहर के बीच मे जमीन के होने से जमीन को अपने हित के लिये तभी लिया जा सकता है जब कानूनी रूप से जामा पहिना कर उसे अपने कब्जे मे लेकर मनमानी कीमत से आगे के लिये रखा जाये। एक जनहित याचिका लगवायी गयी और जनहित याचिका की एवज मे कानून ने आदेश दे दिया कि जो भी निर्माण इस नाले मे है दो सौ दस फ़िट के नाले को बचाकर और जो भी निर्माण इस दूरी मे आते है उन्हे तोड दिया जाये और जो भी लोग बसे है उन्हे पुनर्वास के लिये कोई ठिकाना नही दिया जाये और पन्द्रह दिन के अन्दर उन्हे हटा दिया जाये। इस लाइन मे मुख्य शहर के पास मे बसी कालोनियों के लगभग तीन हजार मकान कानूनी तोड फ़ोड के घेरे मे आ गये। तीन हजार घर यानी एक घर मे अगर दस सदस्य है तो तीस हजार लोग बेघर होकर बरबाद होने की कगार पर खडे हो गये है। कानून को पालन करने वाला कानून को पालन करवाने वाला व्यक्ति जो एक मनुष्य ही है मनुष्य हित को मनुष्य की गरिमा से आच्छादित है मनुष्य का खून उसके अन्दर बह रहा है वह एक आदेश दे दे कि तीन हजार मकानो को तोड कर अमानीशाह नाले को मूल रूप मे स्थापित कर दिया जाये। मूल रूप का अर्थ जो रूप पचासो साल पहले था और उस रूप मे लाने के लिये सरकारी ऐजेन्सी अपनी अपनी धुन मे लग गयी वही एजेन्सी जिनके अन्दर वही मनुष्य काम कर रहे है जो मनुष्य जनता के हित के लिये अपनी सेवा सरकार को दे रहे है सरकार जो मनुष्यों के द्वारा मनुष्य के रूप मे ही बनायी गयी है वही सरकार केवल बिना समझे और बिना हित साधन के उन तीस हजार लोगो को बेघर करने के बाद उनके जीवन की कमाई जो उन तीस हजार लोगो ने अपने निवास के लिये अपने बच्चो का पेट काटकर अपने अर्मानो को ताक पर रखकर पिछली एक चौथाई से अधिक शदी मे निर्माण करने के बाद अपनी आने वाली पीढी के लिये संचित करने के बाद रखी थी,एक एक ईंट को एक एक पत्थर को जुगत से अपने बच्चो के निवास के लिये अपने लिये साधन कि एक छत उनके सिर पर है उसे उजाडने के लिये एक कानून यह नही सोच पाया कि जिस कानून की गद्दी पर बैठे है वह गद्दी का मालिक और उस गद्दी तक पहुंचाने के लिये वही प्रकृति है। इस कानून को स्वार्थी और अहम से भरा कानून मानने के अलावा और कुछ भी नही है। कारण जो बसावट नाले के किनारे बसी है वह बसावट सोसाइटियों द्वारा जमीन को बेचने के बाद पट्टे काट कर बेची गयी है और वह जमीन आज से नही सन १९८२ से बेचनी शुरु हो गयी थी,कई कालोनिया तो सन १९८६ से बस भी गयी थी लोगो ने अपने अपने अनुसार अपने अपने निर्माणो को करवा लिया था तभी वही लोग थे वही कानून था और वही जनहित याचिका लगाने वाले थे,तब से अब तक किसी का मुंह नही खुला और जब देखा कि “मूल रूप से स्थापित करने” का कानून काम कर सकता है,भविष्य मे ऊंचे रसूखदारो का अनाप सनाप फ़ायदा हो सकता है, तो जनहित याचिका लगाकर जन हित की बजाय जन अहित का रूप कानूनी रूप से प्रदान कर दिया।
कानून को करना चाहिये था कि वह लोगों की जान माल की सुरक्षा करे
जो लोग बस गये है उनके लिये या तो कानून अपनी कानूनी प्रक्रिया से उन्हे उचित मुआवजा दिलवाकर उनके रहने का बन्दोबस्त करता,उन्ही लोगो को हटाने की प्रक्रिया को पूरा करता जो वास्तव मे नाले की सीमा मे अतिक्रमण कर रहे है। जो लोग बजाय रहने के व्यवसाय का रूप अपना रहे है उनके लिये कानून अपनी बेदखली का रुख अपनाता तो ठीक था,जहां घनी बस्तियां बस गयी है वहां कानून सरकारी रूप से नाले को पक्का करने के बाद आने वाले बरसाती पानी को निकालने का रास्ता बनाता,आदि काम तो जनहित मे थे,लेकिन जहां जनाहित की बजाय लोगो को बेघर करने और तीन हजार पक्के निर्माण को तोडने के बाद तीस हजार लोगो को बेघर करने का मामला पैदा हो जाये वहां कानून के ऊपर शक करना और कानून को पालन करवाने के लिये बजाय कानूनी रूप से जोर जबरदस्ती करना एक प्रकार से ब्रिटिस कानून से अधिक नही मान्यता नही रखता है,इससे कानून के प्रति लोगो की धारणाये बदल जायेंगी और लोग अपनी सम्पत्ति को अपनी जान देकर भी बचाने की कोशिश करेंगे जिससे बजाय जान माल की सुरक्षा के जान माल का नुकसान होना और इसी कानूनी अनदेखी के अन्दर अराजकीय तत्वो का बढावा होने से बलवा सामूहिक हमला आदि की नौबत भी आने का कारण बन सकता है.

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