Menu
blogid : 7840 postid : 123

हिन्दुत्व को खत्म करता हुआ हिन्दू

Shilpjyoti by Astrobhadauria
Shilpjyoti by Astrobhadauria
  • 53 Posts
  • 34 Comments

अक्षर का अर्थ कभी क्षर नही होना अर्थात कभी समाप्त नही होना है। अक्षर की महत्ता को केवल हिन्दू वैदिक रीति से समझाने के लिये ही अक्षर का निर्माण किया गया और उस अक्षर में जो रूप प्रदर्शित किया गया उस रूप को पत्थर मिट्टी भीति चित्रो अथवा तस्वीरों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया। समय बदलता गया,और अक्षर के उस रूप को प्रदर्शित करने के लिये मन्दिरो का निर्माण किया गया और प्रत्येक अक्षर और अक्षरो से बनने वाले शब्दो को प्रदर्शित किया जाने लगा उनके अर्थ के प्रति अलग अलग जलवायु रहन सहन के अनुरूप बताया जाने लगा। सबसे पुराने ऋग्वेद में कोई भी वृतांत मूर्ति पूजा के निमित्त नही लिखा गया,केवल पांच तत्वों को अलग अलग मीमांशा के द्वारा वर्णित किया गया है और इन्द्र को उसी प्रकार से प्रदर्शित किया गया है जैसे समयानुसार बदलने वाले राजतंत्र का रूप होता है।
हिंदू शब्द का अर्थ
अक्षर ’ह’ पंच तत्वों के एक साथ मिलकर प्रवाहित होने रूप है,बोलते समय ह्रदय से सीधे रूप में बाहर आता है,इन पंच तत्वों को शक्ति देने के लिये छोटी ’इ’ की मात्रा का प्रयोग किया गया है,जैसे शब्द ’शव’ को शक्ति स्वरूप छोटी ’इ’ की मात्रा को लगाने के बाद ’शिव’ की कल्पना की गयी है उसी प्रकार से अक्षर ’ह’को शक्ति देने के लिये ’हि’ की कल्पना की गयी है,अक्षर ’अं’ को हि पर आरोपित करने का अभिप्राय ब्रहाण्ड शक्ति को निरूपित करना उसी प्रकार से है जैसे एक साध्वा स्त्री की पहिचान बताने के लिये लगाई जाने वाली सुहाग बिन्दी का प्रयोग किया जाता है। अक्षर ’द’ का रूप सीमांकन के रूप मे किया जाता है लेकिन केवल मानसिक या ज्ञान की सीमा के लिये ही प्रयोग किया जाता है इस अक्षर को भौतिक रूप मे सामने लाने के लिये अक्षर ह का मिश्रण करने के बाद अक्षर ’ध’ का निर्माण होता है जो धरनी धरा धरती के रूप मे द्रश्य होने लगता है। इस प्रकार से हिंद शब्द का निर्माण किया गया और उस शब्द का मानसिक रूप से विराट शक्ति को साथ मे लेकर चलने वाला एक बडा तंत्र माना गया। मात्रा ऊ को लगाने का रूप भी मनसा वाचा कर्मणा तह तक पहुंचने के लिये ही अक्षर और शब्द मे प्रयोग किया जाता है,और वास्तविक रूप को पहिचानने के लिये ही बताया जाता है। जैसे अक्षर ध में बडे ऊ की मात्रा को प्रयोग करने के बाद धरा का बिखरा रूप बन जाता है और वह धूल के रूप मे सामने करने के लिये ध से धू का बोधक बन जाता है,भौतिक रूप मे द्रश्य करने के लिये ही मात्रा ऊ का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से शब्द ’हिंदू’ का अर्थ पंच तत्व रूपी शरीर का ब्रहमाण्ड के प्रति हमेशा समर्पित रूप से लिया जाना है। वह रूप जो जन्म से लेकर मृत्यु और मृत्यु से लेकर जन्म तक किसी भी रूप मे ब्रह्माण्ड के प्रति समर्पित रहता है।
हिन्दू अपने अक्षर को ही भूल गया है
हिन्दी वर्णंमाला में अग्नि पृथ्वी जल वायु और आकाश तत्व को मिलाकर अक्षरो का निर्माण किया गया है,उदाहरण के लिये क वर्ग में क अग्नि तत्व का बोधक है जो तालू और जीभ के अन्तिम सिरे बोला जाता है। क में वायु तत्व का समावेश करने के बाद अक्षर ख का निर्माण होता है,और पृथ्वी तत्व का मिश्रण करने के बाद अक्षर ग का निर्माण होता है,जल तत्व का निर्माण करने के बाद अक्षर घ का निर्माण होता है और आकाश तत्व के समावेश करते ही अक्षर ड. का निर्माण हो जाता है। तालू का रूप अग्नि तत्व के लिये जाना जाता है और किसी भी अग्नि से सम्बन्धित प्रभाव को अधिक या कम करने के लिये तालू का प्रयोग किया जाता है। जीभ को जल तत्व से समावेशित किया गया है और अक्षर च से अद्रश्य जल तत्व की उपस्थिति होती है छ अक्षर जल और वायु तत्व के मिश्रण से बना है ज अक्षर में जल और पृथ्वी तत्व के मिश्रण से भौतिक रूप मे दिखाई देने वाला रूप बन जाता है और झ अक्षर मे वायु तत्व के मिश्रण से पूर्ण रूप बन जाता है,ञ अक्षर में आकाश तत्व के मिश्रित रूप के अनुसार पहिचाना जाता है। हिन्दू जो सर्व शक्तिवान अक्षरों का मालिक है वह अपनी भाषा शैली को ही भूल कर भ्रमित होकर भटकाव मे आ गया है और वह अपने वास्तविक रूप को भूलकर उसी प्रकार से भटक रहा है जैसे एक कुत्ता अपने मालिक का घर भूल कर घर घर मे जाकर दुत्कार को प्राप्त करता है।
मंदिरो में मूर्तियों के रूप मे शब्द और अक्षरों की स्थापना है
मंदिर शब्द का अर्थ भी समझना जरूरी है। अक्षर ’म’ प वर्ग का अक्षर है। प वर्ग को भौतिक जगत के संधारण में व्यवस्थित रखने के लिये आकाश तत्व के प्रति माना गया है,यह तत्व द्रश्य रूप मे नये निर्माण और व्याप्त रूप में ही निहित होता है बिना आकाश तत्व के जीव की गति नही बन पाती है। आकाश तत्व में अद्र्श्य रूप से व्याप्त चेतना के लिये अक्षर प का निर्माण किया जाता है अक्षर फ़ में वायु तत्व का निरूपण किया गया है ब अक्षर में जल तत्व का मिश्रण है,भ अक्षर में पृथ्वी तत्व का मिश्रण किया गया है और अक्षर म में आकाश तत्व का निरूपण किया गया है। अक्षर म में आकाश तत्व का निरूपण होने के बाद भ में अगर चेतना आने के बाद सजीव रूपों का द्रश्य होना होता है तो नये रूप मे जन्म देने के लिये आकाश तत्व मे विलीन होने की क्रिया में अक्षर म का होना जरूरी है,बिना आकाश तत्व के समावेश के किसी भी भौतिक रूप का विनाश नही हो सकता है,जो द्रश्य होना है वह विनाश भी होना का रूप ही आकाश तत्व के प्रति समर्पित होने की क्रिया है आकाश तत्व के बाद ही अन्य तत्वो के पुनर्निंमाण की क्रिया से जुडा है। अक्षर म में आकाश तत्व के आजाने से मोक्ष यानी शांति की भावना से जुडा होना है और बिन्दु के लगते ही शांति जो ब्रह्माण्ड से जुडी हो और ईश्वरीय रूप में जानने के लिये द्रश्य की गयी हो। अक्षर द पृथ्वी रूप में है और उस रूप में छोटी इ की मात्रा लगाने के बाद उस पृथ्वी रूप को शक्ति से पूर्ण किया गया है। अक्षर र का रूप मनुष्य के वास्तविक रूप में प्रतीक होने के लिये प्रयोग मे लाया गया है जैसे अक्षर आकाशीय विचरण करने वाले जीव ल रूप में पानी के अन्दर रहने वाले जीव व धरती पर विचरण करने वाले पशु पक्षी रूप जो केवल उदर पूर्ति के प्रति विचरण करते है,बाकी श ष और स रूप मे अंडज स्वेदज आदि जीवो के प्रति बताये गये है का रूप जाना जा सकता है। अर्थात मंदिर का अर्थ उस स्थान से जिसे मनुष्य की शांति के लिये एक भूभाग को शक्ति से पूर्ण किया गया है,जिसमे मनुष्य की इच्छा को मनचा वाचा कर्मणा प्रकट करने के बाद शांति की प्राप्ति हो। मंदिर मे जिस शब्द की तस्वीर लगी है उसे भगवान का दर्जा दिया गया है। मात्रा आ में पृथ्वी शक्ति जो केवल धरती पर अपना प्रभाव रखती हो मात्रा ई मे धरती के अन्दर की शक्ति और मात्रा औ में आसमान मे विचरण करने वाली शक्ति का निरूपण किया जाता है। इसी धारणा से नवग्रहों के मंत्रों का निर्माण किया जाता है। उदाहरण के लिये मंगल ग्रह के मंत्रो को प्रयोग करने के लिये मंत्र ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सह भौमाय नम: का जाप किया जाता है,अक्षर क के लिये आपको अभी बताकर आया हूँ कि यह अग्नि तत्व से सम्बन्ध रखता है। मंगल ग्रह भी अग्नि तत्व से पूर्ण ग्रह के रूप मे जाना जाता है और लाल ग्रह के रूप में अपना आस्तित्व रखता है। इस ग्रह की कल्पना आदिकाल से ही की जाती रही है और लाल देह लाली लसे और धरि लाल लंगूर,वज्र देह दानव दलन जय जय जय कपि शूर के नाम से दोहा कहा जाता रहा है। विज्ञान ने भी मंगल ग्रह पर वाइकिंग भेज कर वास्तविक रूप को प्रदर्शित कर दिया है,मंगल के चेहरे को ’फ़ेस आफ़ मार्स’ के रूप में सन दो हजार दो मे अमेरिका की नासा एजेन्सी ने प्रस्तुत किया है जो भारत मे सदैव से पूजे जाने वाले मंगल के देवता हनुमान जी के चेहरे से मिलता है,इसे आप इन्टरनेट से फेस आफ मार्स के रूप से खोज सकते है.अक्षर क्रौं को सुसज्जित तरीके से सजाया जाये तो वह हनुमान जी का पहाड लेकर उडते हुये रूप को प्रदर्शित करता है और आकाश गामी के रूप में पहिचाना जा सकता है। अगर मंगल को हनुमान जी का रूप दे दिया गया है तो क्रौं शब्द को सजाकर मंदिर में पूजा जाने लगा है अग्नि रूप मे आसमानी शक्ति को प्राप्त करने के लिये और यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे के निरूपण के बाद सिर जो आकाशीय तत्व के प्रति धारणा को व्यक्त करता है,में अग्नि रूप के बढावे के लिये पूजा जाना और पूजा के बाद शांति को प्राप्त करना कोई दोष की श्रेणी मे नही आता है। अगर हिन्दू अपने वास्तविक रूप को भूलकर द्रश्य और अद्रश्य के भेद को भूल जाता है तो वह अपने पैर में कुल्हाडी मारने के प्रति धारणा रखने वाला ही कहा जा सकता है। इसी प्रकार से अक्षर से शब्द बनाकर उन शब्दो का मानवीय रूप में पशु पक्षी के रूप में मन्दिरो मे स्थापित किया जाता रहा है उन शब्दो का नाम स्थान और परिवेश के अनुसार अलग अलग दिया जाता रहा है,यह किसी प्रकार से धर्मान्धता की श्रेणी मे नही लाया जा सकता है।
कारकत्व जिनसे हिन्दू हिन्दुत्व को समाप्त कर रहा है
शक्ति की अवहेलना करने के बाद कोई भी जाति आजतक पनप नही पायी है। बदलाव का रूप केवल अर्थ की प्राप्ति के लिये किया जाना उचित माना जा सकता है। धर्म काम और मोक्ष के रूप मे बदलाव करना बेमानी ही है। अगर कोई हिन्दू है और उसके अन्दर अन्य जाति का मिश्रण मिल जाता है तो रूप उसी प्रकार से द्रश्य होगा जैसे शक्कर और नमक का आपस मे मिला दिया जाना। स्वाद भले ही कुछ बदलाव के कारण अच्छा लगे लेकिन हमेशा के लिये नमक नमक ही रहेगा और शक्कर शक्कर ही रहेगी,नमक की जगह पर शक्कर को प्रयोग नही किया जा सकता है और शक्कर को नमक की जगह पर भी प्रयोग मे नही लाया जा सकता है। हिन्दुत्व को समाप्त करने का अर्थ सीधे से ब्रह्माण्ड की उस सत्ता को समाप्त करना है जो मनुष्य को मनुष्य के द्वारा ही समाप्त कर दिया जाये। जब मनुष्य के अन्दर दया नही रहेगी तो एक दूसरे को समाप्त करने के लिये कोई अन्य प्रयोजन सामने लाने की जरूरत ही नही पडेगी। जब तक दया नही है तब तक कोई भी धर्म अपना आस्तित्व सम्भाल कर नही रख सकता है। एक प्रथा जैसे शब्द रूपी मूर्ति के सामने बलि देना,यह प्रथा वास्तविक रूप से कितनी भयंकर है इसका अन्दाज इसी प्रकार से लगाया जाता है जैसे घर मे रोटी नही होने पर और रोटी का कोई बन्दोबस्त नही होने पर बच्चे के द्वारा माता से लगातार रोटी मांगे जाने पर बच्चे को माता पीटने लगती है। यह कारण बच्चे की गल्ती से नही है,यह कारण माता के द्वारा अपने जीवन में साधन जुटाने के लिये की जाने वाली कमी से है,उसी प्रकार से जब व्यक्ति कर्म को करना नही चाहता है और बिना कर्म किये ही उसे जब कुकर्मो से प्राप्त करने की धारणा बन जाती है तो वह दया को भूलने लगता है उसके सामने एक ही बात सामने आती है कि “बूढा मरे या जवान उसे हत्या से काम”यह धारणा बनते ही वह जिस घर मे जन्म लेगा वहाँ भी केवल स्वार्थ का पाठ पढने को मिलेगा किसे किस तरह से काटा जाये,चालाकी के लिये किन किन कारणो को सीखा जाये उसी प्रकार की शिक्षा दीक्षा से प्रेरित किया जायेगा,और दया जहां समाप्त हो गयी वहां धर्म का रूप ही समाप्त हो गया। “दया धर्म का मूल है,पाप मूल अभिमान” जब मनुष्य के अन्दर अर्थ को प्राप्त करते रहने से वह धनी हो जाता है तो वह पहले अपने लिये घर खरीदने की बात करने लगता है घर खरीदने के बाद जब और धनी हो जाता है तो वह महल बनाने का स्वप्न बनाने लगता है महल बन जाता है तो वह एक भूभाग या देश को अपना बनाने के लिये सोचने लगता है और उसकी चाहत अगर बढती भी जाती है तो वह सम्राट की शक्ति को प्राप्त करने के बाद धरती पर एक छत्र राज करने की सोचने लगता है। इस अभिमानी प्रवृत्ति के कारण धर्म का नाश होता जाता है और आगे के विनाश के लिये यही अभिमान हमेशा सामने आता रहा है,देश के देश जल गये है भूभाग शमशान बन गये है कारण उनके अन्दर अभिमान की मात्रा का होना पाया गया है और दया का रूप समाप्त हो गया माना गया है। सम्राट अशोक ने जब कलिंग विजय के उपरान्त जनहानि देखी तो उसकी अन्तरात्मा रोने लगी,चीत्कार करने लगी कि जिस विजय के लिये उसने इतनी हत्या युद्ध के रूप मे करवायी है उस विजय के प्रतिफ़ल के रूप मे उसे क्या मिला ? वह इस नश्वर शरीर को त्याग कर एक दिन चला गया ! भले ही उसका नाम इतिहास में लिया जाता रहे लेकिन जो कलिंग निवासी उसकी युद्ध की नीति में समाप्त हो गये थे उनकी अन्तरात्मा क्या प्रभाव दे रही होगी ? हिन्दू की अपनी स्वार्थ की नीति के पनपने के कारण और अक्षर रूपी शब्द रूपी शक्ति की विवेचना को भूल कर वह मन्दिरो का निर्माण करने लगा,मन्दिरो के चढावे से मन्दिरो मे आने वाले आस्था के कारणो से वह स्वार्थ की नीति मे प्रवेश करता चला गया,लोग मन्दिर को लूट का स्थान समझने लगे,आस्था की हत्या की जाने लगी,हिन्दू अपने ही मन्दिरो से नफ़रत करने लगा और वह अपने को नास्तिक कहने लगा। परिणाम मे उसकी जो आगे की संतति आने लगी वह मन्दिरो और धर्म स्थानो से परहेज करने लगी,उसे केवल यही समझ मे आने लगा कि जब अर्थ ही सबसे बडा है तो धर्म की क्या जरूरत है ? धर्म के परित्याग के कारण राजनीति ने भी अपनी चाल से हिन्दुत्व को समाप्त करने की कहानी शुरु कर दी। जैसे अन्य जातियों को सन्तान पैदा करने के लिये कोई वैध्यता नही है,हिन्दू दो से अधिक पैदा कर लेता है तो वह अवैध्यता की श्रेणी मे चला जाता है वह राजकीय सेवा को करने के बाद जीविका को प्राप्त नही कर सकता है। इन्ही चालो के अन्दर एक हिन्दू को कई श्रेणियों मे बांट दिया गया,और वही हिन्दू आपसी बंटवारे के कारण एक दूसरे का दुश्मन बन गया,फ़ायदा हिन्दू को नही हुआ केवल अन्य समुदायों के लोगो को हुआ जो जिनके साथ न तो दया है और न ही कोई धर्म,हत्या करना जोर जबरदस्ती करना,शक्ति को बन्धक बनाकर रखना लूटना और अपना कानून अपने आप बनाकर चलना,जब कोई बात आजाये तो कह दिया जाना कि उनके धर्म मे ऐसा ही लिखा गया है और उस धर्म को वह मानने के लिये मजबूर है। हिन्दू अपने शब्द बल को भूल गया है,वह भ्रम मे फ़ंस गया है,उसे भान नही रहा है कि वह है क्या ? वह राजनीति अन्य समुदायों की चालों का शिकार हो गया है,उसके ही लोग उसे ही समाप्त करने के लिये अपने स्वार्थ की सिद्धि की कामना मे लगे है। वह अकेला है अगर कोई उसे आकर पीटना शुरु कर देता है लूटना शुरु कर देता है अपमानित करना शुरु कर देता है तो उसके ही लोग सामने खडे रहकर तमाशा देखते रहते है,उन्हे सहायता करना नही आता है कारण सहायता वही कर सकते है जिनके अन्दर खून की पुकार होती है,उनके खून मे विभिन्न समुदायों के रक्त की मिलावट हो गयी है,वह मिलावट कहने को तो हिन्दू कहती है लेकिन उसमे बदलाव की आकांक्षा में अपने खून को गंवा दिया है,जब खून के अन्दर की गर्मी ही समाप्त हो गयी है तो एक दूसरे के प्रति दया का भाव प्राप्त कहां से होगा। ब्राह्मण केवल अपने स्वार्थ की कामना से अपने लिये अधिक से अधिक धन को प्राप्त करने के लिये ही तिलक को लगाना चाहता है और अपने नाम के साथ सुन्दर आवास भोजन और रति क्रिया के लिये नयी नयी कामिनी की चाह मे अपने ब्राह्मणत्व को गंवा बैठा है। क्षत्रिय जो केवल रक्षा करना जानता था वह शराब मांस रोमांस मारकाट से ही अपनी प्रीति लगा बैठा है,रक्षा वाला धर्म ही भूल गया है,वैश्य जो मनुष्य समुदाय के भरण पोषण का जिम्मेदार माना जाता था वह अपने धर्म को भूल कर उस न्याय की तराजू में पाप तौलने लगा है वह चाहता है कि खाली पलडे के बराबर मे भरा पलडा उसके सामने रहे,उसे किसी भी तरह से धन कमाने की चाहत लग गयी है धन को कमाकर वह अपने ही घर मे अपने बडप्पन को दिखाने का अहम पाल बैठा है,उसमे अभिमान जाग्रत हो गया है और केवल अपने बराबर अन्य को देखना ही पसंद नही है। सेवा करने के लिये शूद्र जाति अब ब्राहमण करने के लिये सामने आने लगी है वह सेवा से अधिक अपनी चाकरी करवाना चाहती है वह भूल गयी है कि श्री कृष्ण ने सुदामा नाम के ब्राह्मण की सेवा भी की थी,वह भूल गयी है कि सेवा से बडा कोई धर्म नही है,सेवा से जिसे वश मे किया जा सकता है उसे धन से वश मे नही किया जा सकता है। वह हिन्दू जिसकी धर्म दया मर्यादा और स्वभाव से जगत मे मान्यता थी,अन्य देशो समुदायों जातियों के लोग हिन्दू की तरफ़ आकर्षित होते थे और मर्यादा का पाठ सीखते थे वह हिन्दू आज अन्य जातियों समुदायो की तरफ़ आकर्षित होता जा रहा है और अपनी औकात को भूल कर ऐसा लगता है कि वह अपने ही घर मे बेगाना बनकर रह रहा है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply